सर्वेश्वर – जीवन परिचय एवं रचनात्मक आयाम



जीवन परिचय

किसी पत्रकार का वास्तविक परिचय तो उसकी लेखनी से रूबरू होकर ही पाया जा सकता है । वस्तुतः उसके लेखन में सामाजिक चिंताएं तथा समय के पार देखने की उसकी क्षमता ही उसे जागरूक पत्रकार बनाती है । निश्चय ही ऐसे व्यक्तित्व के निर्म3ण में उसके परिवेश, पारिवारिक पृष्ठभूमि एवं संघर्ष-यात्रा का महत्वपूर्ण योगदान होता है । इन सन्दर्भों की समझ के बिना, सच में किसी व्यक्ति को पूरा नहीं जाना जा सकता है । वे कौन से कारक एवं कारण थे, जो सर्वेश्वर की पत्रकारिता में एक व्यापक जन प्रतिबद्धता एवं तल्खी पैदा करते हैं तथा अंधरों के खिलाफ लड़ने का हौसला देते हैं । इन्हें जानने के लिए सर्वेश्वर जी का जीवन परिचय जानना आवश्यक हो जाता है ।

भारत वर्ष में कायस्थ जाति सदैव कलम की धनी रही है । आमतौर पर खेती या व्यावसायिक कार्यों की अपेक्षा नौकरियों को इस जाति ने प्राथमिकता दी है । कुछ समय पूर्व तक तो कोर्ट-कचहरियों (न्यायालयों) में इसी जाति के लोगों की बहुतायत थी । पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हरदयाल सिंह इन्हीं कोर्ट-कचहरियों में काम करते हुए एक दिन पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक अत्यंत पिछड़े जिले बस्ती में आ पहुंचे । काफी दोनों तक यहां कार्रत रहने के बाद कुछ आर्थिक विपवन्नता एवं कुछ बस्ती से लगाव हो जाने के कारण वे पुनः अपने जन्म स्थान नहीं लौटे । इस प्रकार उनका परिवार बस्ती का निवासी होकर रह गया । हरदयाल जी अपने पुत्र विश्वेश्वर दयाल के साथ बस्ती शहर में स्थित मालवीय रोड से सटे हुए गांव पिकौरा शिवगुलाम में रहते थे । परिवार की आर्थिक स्थितियां बेहतर न थीं, सो विश्वेश्वर दयाल जी की अच्छी शिक्षा-दीक्षा नहीं हो पाई । उन दिनों देश में स्वाधीनता आंदोलन की लहर तेजी से चल रही थी । विश्वेश्वर दयाल पर भी इस आंदोलन का असर पड़ा । सामाजिक एवं राष्ट्रीय भावना से प्रभावित विश्वेश्वर जी इसी के चलते अपना विवाह आर्य समाजी रीति से सौभाग्यवती देवी के साधथ किया । सौबाग्यवती देवी का नैहर जानसठ कस्बा, जिला मुजफ्फर नगर, उत्तर प्रदेश में था । इनकी शिक्षा-दीक्षा जालंधर (पंजाब) में हुई थी । राष्ट्रीय भावना से लैस विश्वेश्वर जी की पहली जिद सरकारी नौकरी न करने की थी और उन्होंने आर्थिक विपन्नता के बावजूद इस संकल्प जीवनपर्यन्त निभाया । परिवार पालने के लिए उन्होंने वैदिक पुस्तकों की दुकान खोली, जो कुछ दिनों बाद फोटो फ्रेमिंग की दुकान में बदल गई । व्यापार में अपने अलमस्त स्वभाव के चलते वे हानि उठाते रहे और पेशा बदलते रहे । वे पब्लिक हाई स्कूल, बस्ती में अवैतनिक बड़े बाबू भी रहे । उनके प्रमुख मित्रों में परमात्मा प्रसाद वकील, बाबू कटेश्वर प्रसाद (इनके नाम पर ही बस्ती में कटेश्वर पार्क है), पण्डित धर्मनाथ आदि थे । इसी बीच विश्वेश्वर जी की पत्नी, जो कि कन्या विद्यालय जालंधर की पढ़ी थीं, को स्थानीय गर्ल्स हाई स्कूल में अध्यापन कार्य मिल गया ।

जीवन के झंझावातों के बीच 15 सितंबर, 1927 को विश्वेश्वर दयाल के घर हमारे आलोच्य पत्रकार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म हुआ । फलतः सर्वेश्वर जी की आरंभिक शिक्षा-शिक्षा भी बस्ती में ही हुई । बचपन से ही वे विद्रोही प्रकृति के थे । उनकी रचना तथा पत्रकारिता में उनका लेखन इसकी बानगी पेश करतात है । इसी कारण जब वे बस्ती के राजकीय हाईस्कूल में नवीं कक्षा में पढ़ रहे थे, राजनीतिक चुहलबाजी के कारण उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया । फिर सर्वेश्वर को एंग्लो संस्कृत हाईस्कूल, बस्ती के प्रधानाचार्य श्री चक्रवर्ची ने शरण दी । इसी विद्यालय से सर्वेश्वर जी ने 1941 में हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की । इस सबके बीच बस्ती का ग्राम्य परिवेष, आंचलिकता, शहर के किनारे बहने वाली कुआनो नदी, भुजैनिया का पोखरा आदि प्रतीक सर्वेश्वर के भोले मन को प्रभावित करते रहे । माटी की यह महक तथा जीवन के संत्रासों को वे ताजिंदगी नहीं भूले । दिल्ली में बैठकर भी यह सब उन्हें याद आता रहा ।

इस बीच सर्वेश्वर जी के पिता विश्वेस्वर दयाल जी ने बड़ी मेहनत से मालवीय रोड स्थित अनाथालय के पास एक छोटा सा घर बनवा लिया । इसी नए घर में सर्वेश्वर के छोटे भाई एवं छोटी बहन का जन्म हुआ । इस दौरान सर्वेश्वर जी की मां का तबादला बस्ती से बांसगांव (जनपद – गोरखपुर), फिर वाराणसी हो गया । सर्वेश्वर भी अध्ययन के लिए अपनी माँ के साथ वाराणसी चले गए । 1943 में उन्होंने वाराणसी के क्वींस कॉलेज से इन्टरमीडियट की परीक्षा उत्तीर्ण की । सन 1944-45 में आर्थिक विपन्नता और बहन की शादी हेतु पैसा एकत्र करने हेतु सर्वेश्वर ने पढ़ाई छोड़ दी । वास्तव में सर्वेश्वर जी के परिवार की आर्थिक दशा कभ अच्छी न रही । फिर भई किसी तरह परिवार के बड़े पुत्र होने की जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए उन्होंने अपनी बहन का विवाह 1946 में शाहजहांपुर में किया । इस दौरान सर्वेश्वर ने बस्ती के खैर इण्डस्ट्रियल इण्टर कॉलेज में नौकरी भी की यहाँ उन्हें 60 रुपए प्रतिमाह वेतन प्राप्त हो रहा था । वे इसके बाद ज्यादा दों तक बस्ती न रह पाए । उनकी दिली तमन्ना कुछ कर दिखाने की थी । जाहिर है वे रुकने और थकने वाले जीव कहाँ थे । इसी अभिलाषा को हृदय में संजोए वे बस्ती से प्रयाग (इलाहाबाद) पहुंच गए । इलाहाबाद से उन्होंने बीए और सन 1949 में एमए की परीक्षा उत्तीर्ण की । 1949 का यह साल पत्रकार सर्वेश्वर के मर्मान्तक पीड़ा देने वाला साबित हुआ और उनकी प्यारी माँ अपने स्वास्थ्य एवं आर्थिक विपन्नता को झेलते हुए उनसे हमेशा के लिए बिछुड़ गई । उस वर्ष गोर दुःख एवं विपन्नता को सहते हुए सर्वेश्वर किसी प्रकार लगभग चार माह अपने पिता के साथ बस्ती रहे । यहीं उन्होंने प्रख्यात उर्दू शायर ताराशंकर ‘नाशाद’ के साथ ‘परिमल’ (साहित्यिक संस्था) की स्थापना की । तभी एजी आफिस, इलाहाबाद के सेक्रेटरी, जो स्वयं साहित्यिक रुचि के थे, सर्वेश्वर को तार देकर प्रयाग बुलाया ।

सर्वेश्वर जी प्रयाग पहुंचे और उन्हें एजी आफिस में प्रमुख डिस्पैचर के पद पर कार्य मिल गया । आफिस के प्रमुख अधिकारी सर्वेश्वर जी की साहित्यिक रुचियों से खासे प्रभावित थे, इसके चलते उन्हें वहाँ काम बहुत स्वतंत्रता मिली । इस प्रकार सर्वेश्वर के लिए यह नौकरी वरदान साबित हुई तथा प्रयाग के साहित्यिक-सांस्कृतिक वातावरण में उन्नें रमने एवं बेहतर रचने का मौका मिला । वे एजी आफिस में 1955 तक रहे । तत्पश्चात आल इंडिया रेडियो के सहायक संपादक (हिंदी समाचार विभाग) पद पर आपकी नियुक्ति हो गई । इस पद पर यहाँ (दिल्ली) वे 1960 तक रहे । इसी बीच उनकी पहली पुत्री का जन्म 11 सितंबर 1957 को हुआ । इसी वर्ष उनके पिता का निधन बस्ती में हो गया । सन 1960 के बाद वे दिल्ली से लखनऊ रेडियो स्टेशन आ गए ।1964 में लखनऊ रेडियो की नौकरी के बाद वे कुछ समय भोपाल एवं इंदौर रेडियो में भी कार्यरत रहे । इस दौरान उनकी छोटी बेटी विभा का जन्म हुआ । सन 1964 में जब दिनमान पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ तो वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ के रग्रह पर वे पद से त्यागपत्र देकर दिल्ली आ गए और दिनमान से जुड़ गए । ‘अज्ञेय’ जी के साथ पत्रकारिता के क्षेत्र में उन्होने काफी कुछ सीखा । 1982 में प्रमुख बाल पत्रिका पराग के सम्पादक बने । इस बीच उनकी पत्नी विमला देवी का नधन हो गया । तत्पश्चात सर्वेश्वर की बहन यशोदा देवी ने आकर उनकी दोनो बच्चियों को मातृत्व भाव से लालन-पान किया । उनके छोटे भाई श्रद्धेश्वर अभी बस्ती में अपनी पत्नी एवं तीन बच्चों के साथ निवास कर रहे हैं ।

पराग के संपादक के रूप में आपने हिंदी बाल पत्रकारिता को एक नया शिल्प एवं आयाम दिया । नवंबर 1982 में पराग का संपादन संभालने के बाद वे मृत्युपर्यन्त उससे जुड़े रहे और 23 सितंबर 1983 को नई दिल्ली में उनका निधन हो गया । सर्वेश्वर जी की दोनों पुत्रियां सम्प्रति दिल्ली में रह रही हैं ।

रचनात्मक आयाम
समकालीन हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता में जहां तक जनता से जुड़े कलमकारों का सवाल है, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना अपनी बहुमुखी रचनात्मक प्रतिभाके साथ एक जवाब की तरह सामने आते हैं । कविता हो या कहानी, नाटक हो या पत्रकारिता, उनकी जनप्रतिबद्धता हर मोर्चे पर कामयाब है ।

कथा साहित्य –
सर्वेश्वर जी एक कथाकार एवं उपन्यासकार के रूप में भी हिंदी साहित्य संसार में समादृत हुए । विश्वविद्यालयीन जीवन में ही उन्हें उनकी कहानियों के लिए पुरस्कार मिले । अपना लेखक जीवन उन्होंने वस्तुतः एक कथाकार के रूप में आरंभ किया । सन 1950 तक वे कहानियां लिखते रहे । तीन-चार सालों बाद उन्होंने फिर कहानियां लिखीं । इसी समय उनका लघु उपन्यास ‘सोया हुआ जल’ छपकर आया, फिर उनका उपन्यास ‘उड़े हुए रंग’ छपा । एक अन्य कथा संग्रह ‘अंधेरे पर अंधेरा’ की खासी चर्चा हुई ।

काव्य साहित्य –
सर्वेश्वर जी एक बेहद संवेदनशील कवि साबित हुए कहानी के बाद वे कविता लेखन के क्षेत्र में 1950 में आए । कम समय में उन्होंने अपने समय के लोगों में जो खास जगह दर्ज कराई, उससे वे हिंदी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर बन गए । 1959 में अज्ञेय के संपादन में प्रकाशित ‘तीरसा सप्तक’ के कवि के रूप में पहचाने गए । उनके कविता संग्रह ‘खूंटियों पर टंगे लोग’ पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला । सही अर्थों में सर्वेश्वर नई कविता के अधिष्ठाता कवियों में एक थे । सर्वेश्वर के काव्य ने नई कविता की शक्ति और सामर्थ्य को एक नई अर्थवत्ता प्रदान की, भावनात्मक आस्फलन से हटकर विचारों की ठोस भूमि पर अपनी प्रामाणिकता सिद्ध की है । अपनी जनपरक मानसिकता, सामाजिक सत्यों को उजागह करने के अनवरत प्रयास, संतुलित संवेदना और अपनी बेलाग किंतु भारतीय लोक परंपराएवं संस्कृति से सीध-सीधे जुड़ी हुई काव्यभाषा की विशिष्टता के कारण सर्वेश्वर नई कविता के प्रतिनिधि कवि माने गए ।

सर्वेश्वर ने नाटक, उपन्यास, कहानी के समा पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अनेक ऊँचाइयां प्राप्त की लेकिन उनका कपवि व्यक्तित्व ही सर्वाधिक प्रखर एवं भास्वर है । प्रख्यात आलोचक डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल मानते हैं कि “समसामयिक जीवन-संदर्भों, समस्याओं से सीधे जुड़ने के कारण उनकी ताजी संवेदनात्मक क्षमता एक क्षमता संपन्न कवि के काव्य को नवीन विचारों-दृष्टियों से भरा-पूरा बना रही है ।” पालीवाल मानतेहैं कि सर्वेश्वर के कवि ने लगाता अपने को विकसित, परिष्कृत करते हुए धारदार बनाया है ।

तीसरा सप्तक के वक्तव्य में ‘कवि के व्यापक जीवन दर्शन’ को अपनान का संकेत सर्वेश्वर देते नजर आते हैं – “मैं कविता क्यों लिखता हूँ – मैंने कविता क्यों लिखी ? कहूं कि किसी लाचारी से लिखी । आज की परिस्थिति में कविता लिखने से सुखकर एवं प्रीतिकर कई काम हो सकते हैं, और मैं कविता न लिखना यदि हिंदी के आज के प्रतिष्ठित कवियों में एक भी ऐसा होता जिसकी कविता में कवि का व्यापक जीन दर्शन मिलता। अधिकांश पुरे कवि छंद और तुक की बाजीगरी के नशे में काव्य-विषय की एक-एक संकीर्ण परिधि में घिरकर व्यापक जीवन दर्शन के संघर्षों को भूल न गए होते और उन्हें कविता के विषय में से निकाल न देते ।”7

- (वक्तव्य – तीसरा सप्तक – पृष्ठ 200)
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इस कथन से यह स्पष्ट है कि एक गहरी आंतरिक प्रेरणा से विवश होकर कवि ने कविकर्म का दायित्व उठाया । मामूली आदमी के प्रति उनकी दृष्टि डॉ. लोहिया की दृष्टि से प्रेरित है । जो उसके कद को छोटा होते देख दुखी होती है और उस कद को बढ़ाने एवं रक्षित रखने के लिए प्राण-पण से जूझती रहती है । क्योंकि डॉ. लोहिया ने इस सड़ी-गली व्यवस्था को अपने विद्रोही चिंतन से बदलना चाहा था –

“उसने थूका था इस
सड़ी गली व्यवस्था पर
उलटकर दिखा दिया था
कालीनों के नीचे छिपा टूटा हुआ फर्श,
पहचानता था वह उन्हें
जो रंग के चुने कूड़े के कनस्तरों से
सभा के बीच खड़े रहते थे ।”8
– (लोहिया के न रहने पर – गर्म हवाएं)

यही विद्रोही चिंतन सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की समस्त काव्य-यात्रा से वैचारिक भूमिका के रूप में विद्यमान है । इस चिंतन को ग्रहण करने वाले वे अकेले कवि नहीं हैं । इसी चिंतन से रघुवीर सहाय, धूमिल भी प्रेरित हैं ।

अपने अनुभवों को नए से नए युगीन यथार्थ से जोड़ने के कारण ही सर्वेश्वर बंधी विचारधाराओं, मान्यताओं, सिद्धांतो, शास्त्रों एवं आदर्शों के खूंटे तोड़कर भागते हैं । नए शहर ने उन्हें बेचैन कर दिया है और नए गांव ने उदास । सर्वेश्वर का समस्त काव्य जीवन की विद्रूपताओं एवं विसंगतियों को सीधे-सीधे अभिव्यक्त करता है । यहां काव्य में व्यक्त विसंगतियों का अर्थ सामाजिक भ्रष्टाचार, राजनीति का लंपटपन, विकृतियां, कुरूपताएं, अमानवीयकरण, व्यक्ति का विघटित रूप, मूल्यांधता आदि सभी से है ।

सर्वेश्वर की कविता में भाषा की कामधेनु का दूध इतना ताजा एवं जीवनप्रद है कि नई कविता का संसार उससे पुष्ट ही हुआ है । सामाजिक परिवर्तन को लगातार नजरुल इस्लाम की तरह अराजकतावादी स्वर की तरह पहचानते हैं । सामाजिक व्यवस्था के विद्रोहपूर्ण क्षण में वे अपने से भी विद्रोर करते हैं –

“मैं जहां होता हूँ
वहाँ से चल पड़ता हूँ
अक्सर एक व्यथा
एक यात्रा बन जाती है ।”
(अक्सर एक व्यथा)

अपनी कविता और अपने उद्देश्य को वे पूरे खुलेपन से स्वीकारते हैं । वे कहते हैं –

“अब मैं कवि नहीं रह
एक काला झंडा हूँ ।
तिरपन करोड़ भौंहों के बीच मातम में
खड़ी है मेरी कविता ।”

सर्वेश्वर मूलतः ग्रमीण एवं कस्बाई संस्कार के कवि थे । वे बड़े महानगर की यंत्रणा से बेचैन हैं । इसलिए राजधानी दिल्ली में उन्होंने कुआनो नदी का ध्यान हर क्षण रहता है । इसलिए उनकी कविता में महानगर की पीड़ा और कराह भरी है –

“दिल्ली हमका चाकर कीन्ह
दिल दिमाग भूसा भर दीन्ह ”

लोक भाषा, लोकलय एवं लोक जीवन, तीनों मिलकर उनकी कविता के साधन जुटाते हैं ।

आपात-स्थिति की व्यथा-कथा को समेटता हा ‘जंगल का दर्द’ काव्य संग्रह 1976 में प्रकाशित हुआ । कवि इस बर्फीले माहौल में रोशनी तथा आग लेकर चल पड़ता है ।

प्रख्यात कवि कुंवर नारायण मानते हैं कि, “सर्वेश्वर मूलतः अपने तीव्र आवेगों और उत्तेजनाओं वाले व्यक्ति थे, जिनका पूरा असर उनके लेखन और उनके आपसी संबंधों दोनों पर पड़ता था । बौद्धिकता की बारीकियों और काट-छांट में वे ज्यादा नहीं पड़ते थे । जिसे तीव्रता से महसूस करते थे, उस पर विश्वास करते और उसे उतनी ही तीव्रता से शब्द देते । यह उनके लेखन की ताकत थी ।”

कवि रघुवीर सहाय का कहना था कि “सर्वेश्वर ने कविता को एक नया रूप दिया और एक नई भाषा की खोज की ।”

हमारे आसपास के जीवन-इतिहास से जुड़ी सर्वेश्वर की कविताएं, हमारे सेथ बतियाती चलती हैं । उनकी संवादिता प्रभावशाली ढंग लिए होती है । कलानुभव की सघनता, सच्चाई तथा ईमानदारी तीनों मीलकर सर्वेश्वर की कविता को महत्वपूर्ण बनाते हैं ।

नाट्य साहित्य –
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने एक नाटककार के रूप में अपनी अलग पहचान दर्ज कराई । उनके नाटकों में ‘बकरी’ सर्वाधिक चर्चित हुआ, जिसके ढेरों मंचन हुए । उनके नाटकों में राजनीतिक विद्रूपताओं एवं यथास्थितिवाद के खिलाफ तीखा व्यंग्य मिलता है । वे अपने पात्रों के माध्यम से देश की सड़ांध मारती राजनीतिक व्यवस्था पर सीधी चोट करते नजर आते हैं । इसके अलावा उन्होंने लड़ाई, अब गरीबी हटाओ, कल भात आएगा, हवालात, रूपमती बाजबहादुर, होरी घूम मचोरी नामक नाटक एवं एकांकी लिखे । बच्चों के लिए उन्होंने भों-भों-खों-खों तथा लाख की नाक नामक नाटक लिखे ।

पत्रकारिता –
सर्वेश्वर जी पहले रेडियो पत्रकारिता से जुड़े, फिर 1964 में दिनमान पत्रिका के माध्यम से उन्होंने प्रिंट मीडिया की पत्रकारिता का आरंभ किया। सर्वेश्वर जी की पत्रकारिता वस्तुतः पत्रकारिता को एक नया संस्कार देने का प्रयास साबिद हुई । दिनमान में अपने चर्चित स्तंभ चरचे और चरखे के ले वे जाने गए । उनका यह नियमित स्तंभ उनकी जागरूक पत्रकारिता का महत्वपूर्ण परिणाम है । उनका यह स्तंभ इस बात का महत्वपूर्ण उदाहरण है कि कैसे सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक प्रसंगों से जुड़ी तात्कालिक घटनाएं और खबरें एक मूल्यधर्मी कलम पाकर स्थायी महत्व प्राप्त कर लेती है । पराग के माध्यम से बाल पत्रकारिता के क्षेत्र में उन्होंने सार्थक हस्तक्षेप किया । उन्होंने साबित किया कि बाल-पत्रकारिता एक अलग कौशल एवं जीवंतता की मांग करती है । उसका घिसा-पिटा ठांचा-ढर्रा आज के बच्चों के ले मनोनुकूल न होगा । इसके चलते उन्होंने पराग में तमाम प्रयोग किए, जिनका स्वागत किया गया । पराग में उनका संपादकीय थोड़ा कहा बहुत समझना रुचि से पढ़ा जाता था ।

चरचे और चरखे जो 1969 में नियमित दिनमान का चर्चित स्तंभ रहा, पुस्तककार रूप में संकलित कर राजकमल प्रकाशन, दिल्ली ने छापा है ।

अन्य –
इसके अलावा सर्वेश्वर ने प्रख्यात कवि स्व. शमशेर बहादुर सिंह पर केन्द्रित शमशेर का संपादन भी किया । उन्होंने नेपाली कविताएं शीर्षक से एक काव्य संग्रह का भी संपादन किया । उन्होंने यात्रा संस्मरण भी लिखे, जो कुछ रंग-कुछ गंध नाम से छपकर आया है । बच्चों के लिए उन्होंने काफी साहित्य लिखा । उनके दो बालकविता संग्रह बतूता का जूता एवं महंगू की टाई नाम से छप चुके हैं ।

सर्वेश्वर का रचना संसार

काव्य –
1. तीसरा सप्तक – सं. अज्ञेय, 1959
2. काठ की घंटियां – 1959
3. बां का फूल – 1963
4. एकसूनी नान – 1966
5. गर्म हवाएं – 1966
6. काआनो नदी – 1973
7. जंगल का दर्द – 1976
8. खूंटियों पर टंगे लोग – 1982
9. क्या कह कर पुकारूं – प्रेम कविताएं
10. कविताएं (1)
11. कविताएं (2)
12. कोई मेरे साथ चले

कथा-साहित्य
1. पागल कुत्तों का मसीहा (लघु उपन्यास) – 1977
2. सोया हुआ जल (लघु उपन्यास) – 1977
3. उड़े हुए रंग – (उपन्यास) यह उपन्यास सूने चौखटे नाम से 1974 में प्रकाशित हुआ था ।
4. कच्ची सड़क – 1978
5. अंधेरे पर अंधेरा – 1980
6. अनेक कहानियों का भारतीय तथा यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद
सोवियत कथा संग्रह 1978 में सात महत्वपूर्ण कहानियों का रूसी अनुवाद ।

नाटक
1. बकरी – 1974 (इसका लगभग सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद तथा मंचन)
2. लड़ाई – 1979
3. अब गरीबी हटाओ – 1981
4. कल भात आएगा तथा हवालात –
(एकांकी नाटक एम.के.रैना के निर्देशन में प्रयोग द्वारा 1979 में मंचित
5. रूपमती बाज बहादुर तथा होरी धूम मचोरी मंचन 1976

यात्रा संस्मरण
1. कुछ रंग कुछ गंध – 19791

बाल कविता
1. बतूता का जूता – 1971
2. महंगू की टाई – 1974

बाल नाटक
1. भों-भों खों-खों – 1975
2. लाख की नाक – 1979

संपादन
1. शमशेर (मलयज के साथ – 1971)
2. रूपांबरा – (सं. अज्ञेय जी – 1980 में सहायक संपादक सर्वेश्वर दयाल सक्सेना)
3. अंधेरों का हिसाब – 1981
4. नेपाली कविताएं – 1982
5. रक्तबीज – 1977

नोट
1. दिनमान साप्ताहिक में चरचे और चरखे नाम से चुटीली शैली का गद्य – 1969 से नियमित ।
2. दिनमान तथा अन्य पत्र-पत्रिकाओं में
साहित्य, नृत्य, रंगमंच, संस्कृति आदि के विभिन्न विषयों पर टिप्पणियां तथा समीक्षात्मक लेख ।
3. सर्वेश्वर की संपूर्ण गद्य रचनाओं को चार खण्डों में किताबघर दिल्ली ने छापा है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि सर्वेश्वर एक बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे । उनका रचनाधर्मी व्यक्तित्व वस्तुतः एक रचनात्मक उत्तेजना से भरा था । वे कविता, कहानी, नाटक या पत्रकारिता हर मोर्चे पर डटे और उन्होंने अपनी खालिस अलग पहचान बनाई । इतनी ऊँचाई पाने के बाद एक खास बात उनमें मौजूद थी कि वे अंत तक एक आम आदमी की तरह जिए । वे खुद कहते थे – “मैं उस आम आदमी के साथ उसकी यातना में खड़ा हूँ, संवेदना के स्तर पर मैं वह आम आदमी हूँ – मैं किसी राजनीतिक दल का सदस्य नहीं हूँ क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल आम आदमी के साथ नहीं है ।” वे फिर कहते हैं – “मैं साधारण हूँ और साधारण रहना चाहता हूँ, आतंक बनकर छाना नहीं चाहता ।” कुल मिलाकर सर्वेश्वर का समूचा व्यक्तित्व एवं कृतित्व ऐसी तेजस्विता से भरा दिखता जो जगह सिर्फ उनकी ही है ।

वस्तुतः सर्वेश्वर एक अत्यंत विचारशील, संवेदनशील एवं मध्यमवर्गीय चेतना केजागरूक पत्रकार थे । उनकी पत्रकारिता एवं साहित्य में भावों का उच्छलन मात्र नहीं, बौद्धिकता की परिणति दिखती है । उनका रचनात्मक आयाम व्यापक है । उनका लेखन पाठक के मन में अंधेरों एवं यथास्थितिवाद के खिलाफ सामाजिक बदलाव की चेतना जगाता है, नए समाज की रचना में लोगों को एक सार्थक भूमिका के लिए तैयार करता है । एक पत्रकार के रूप में, एक साहित्यकार के रूप में उनकी सामाजिक चिन्ताएं बहुत व्यापक थीं । उनका पत्रकारीय लेखन जहाँ एक ओर हमारे वर्तमान दौर की कड़ी आलोचना है तो दूसरी ओर सहरी मायनों में विकसित मानवीय समाज रचना की आकांक्षा से परिपूर्ण है ।

सन्दर्भ
इस अध्याय की सामग्री निम्न पुस्तकों, व्यक्तियों से प्राप्त हुई –
1. तीसरा सप्तक (सं. अज्ञेय) में छपा कवि परिचय ।
2. श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और परमात्मा नाथ द्विवेदी की मौखिक बातचीत ( नई दिल्ली, फरवरी 27, 1977)
3. श्री श्रद्धेश्वर दयाल सक्सेना (सर्वेश्वर के अनुज) एवं परिजनों से बातचीत ।
4. सर्वेश्वर द्वारा एक हस्तलिखित निबंध (पृ. 1)
5. वही (पृ. 2)
6. दिनमान (9-15 अक्टूबर, 1983 पृ. 26,27)
7. तीसरा सप्तक – (पृ. 200)
8. सर्वेश्वर और उनकी कविता – कृष्णदत्त पालीवाल

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